जालन्धर 18 नवम्बर (बृजेश शर्मा) : कहते हैं कि जब तक पुराने समय में घर में खुशी के माहौल में ढोल नहीं बैठे थे तब तक खुशी का पता ही नहीं चलता था।
लेकिन आज के समय में डीजे की थाप में ढोल का साज तो खत्म होता जा रहा है। एक जमाना ऐसा होता था कि जब पंजाबी सभ्याचार को महत्त्व देते हुए जब सुलगते थे तो बारिश आ जाती थी आज के समय में वह सुर-ताल आलोप हो गई है।
सभ्याचार विषय के साथ जुड़ी हुई ऐसे ही संगीत की धुन अब खत्म होती नजर आ रही है। पंजाबी विरसे में अब बहुत सारे नय इलेक्स्ट्रिक साज आ गए है।
पुराने संगीत के साजो की जगह अब इलेक्ट्रॉनिक साजो ने बना ली अपनी जगह..
एक समय ऐसा था कि जब पंजाब में कहीं भी संगीत का नाम आता था तो वहां पंजाब का संगीत देखने को मिलता था।
जिसमे ढोलकी,तबला,हारमोनियम,अलगोजे, तुम्बी, बांसुरी की बात हो या फिर चिमटे, टलियां की। यह सब चीजें आमतौर पर देखने को मिलती थी लेकिन धीरे-धीरे समय के साथ-साथ यह साज अब आलोप ही होते नजर आ रहे हैं।
किसी समय जालन्धर की इस रोड पर होती थी संगीत की दुनिया
1961 से जालन्धर की रेलवे रोड पर संगीत के साज बेचने वालों की पूरी मार्किट थी। लेकिन धीरे धीरे साज बनाने वाले कारीगरों की कमी होने लगी,जिसके बाद अब गिनी चुनी ही दुकाने रह गई है।
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जिनमे आज भी सबसे पुरानी एक ही दुकान है। कलकत्ता म्यूजिक हाउस ही एक ऐसी पुरानी दुकान है। जो 1961 से अभी तक है।
अब नही मिलती पुराने साज बनाने वाली लेबर : सरदार जोगिंदर सिंह
कलकत्ता म्यूजिक हाउस के मालिक जोगिंदर सिंह ने बताया कि एक समय ऐसा था कि जब लोग प्रोग्राम में पुराने साजो का काफी इस्तेमाल करते थे। यही कारण था कि उस समय इस काम को करने वाली लेबर की भी कोई कमी नही होती थी। इस समय मे भी जो लेबर काम कर रही है। वह भी बहुत महंगी है। क्योंकि पुराने कारीगरों के इलावा अब कोई नया कारीगर इस काम को करता ही नही है।
साज को बनाने वाली लकड़ी भी जम्मू कश्मीर से आनी हुई बंद
जोगिंदर सिंह ने बताया कि इन साजो को बनाने के लिए जो लकड़ी आती थी वह जम्मू एंड कश्मीर से आती थी। लेकिन वहां से यह लकड़ी आनी बंद होने के कारण काम बहुत प्रभावित हुआ है। उन्होंने कहा कि जितने सुर इन लकड़ी के बने साज से निकलते है उस से कई ज्यादा अब इलेक्ट्रिक साजो से निकलते है। अगर हारमोनियम की बात की जाए तो उसको बनाने के लिए जिस लकड़ी का इस्तेमाल होता था। उससे बहुत अच्छे सुर निकलते थे।